أما قبل..
وقد مزقتُ لأجلك كلَ دروبي..
فزرعتَ بيننا المسافات قطيعة..
زرعتَ أيسري شوكا..
وانتعلتَ الغياب..
ومضيتَ..!!
يليه..
وقد ألقتني الأقدار على قارعة اللظى..
فليتني ما تبعتك..
ما صدقتك..
ما بايعتك..
لكنه الشوق..
كم خدعني..
فأتيتُ..
هنيئا لك..
كم شقي أنا..
وكم..
نقي أنتَ..!!
بقلمي العابث..