قال..
أيُحْزِنُكِ الآن أني ذهبتُ؟!..
أيؤلمك..
أني هجرت؟!..
أني غادرت..
وماذا عن مرات؟!..
تألمت فيها كثيييرا إذن..
وكم ألف مرة فيها عتبتُ..
وكم ألف ليلة هنا..
قضيتها وحدي..
بلا غسل ولا كفن..
يرافقني موت..
و..
يتركني موتٌ..
عذرا يا سيدتي..
قد كان حبك خطيئتي الكبري..
والآن..
تبتُ..
فاذهبي..
لا كنتُ يوما على قيد عشقك..
ولا كنتِ يوما مذهبي..
لا..
أقسم أني نسيت جدا..
نسيت فعلا..
نسيت أني..
قُتلت عمدا..
ولم أنسَ أبدا..
كذباتِ قلبكِ..
وأنك جئت لتعبثي..
أو أنك جئتِ لتلعبي..
كذبتِ طبعا..
وما يضرُ؟!..
سيمرُ وجعي..
حتما يمرُ..
لكن الذي رفض المرور..
أن أُلهي قلبي..
حتى يقنع أنك..
ما أتيت لتكذبي..
ورغم أنك كاذبة..
كنت أسكت كل آهة..
الأولى..صمتا..
الأخرى..حرقا..
وياااا ألف ألفِ..اخرسي..
ويا كل صرخة بعمق روحي..
حبا بالله..
تأدبي..
نسيتُ دمعي..
أي نعم..
نسيت وجعي..
والألم..
نسيت حرقة تجتز ضلعي..
أظن إي..
لكن..لأنسى خذلاني فيك..
أحتاج حرقا..
أحتاج غرقا..
أحتاج شنقا..
وماااا نسيتُ..
إلى تلك ال…اذبة..
بقلمي العابث..