وأنا الذي خلتك يا ابن روحي..
صنو قلبي..
وثمرة الأشواق..
لكن..
واااا خيبتاه..
يمضي القلب لوِحْدَةٍ..
والروح..
إلى العقم مآلها..
وها هي الثمرة يا سيدي..
طعمها حرّاق..
فواااا عجبا..
لماذا أتيت؟!..
لتحيني؟!..
وترد لي نزف قلبي؟!..
بعدما..
عبث الخريف بأضلعي..
قساوة..
وفراق..
ما أروعك..ما أروعك..
سلبت روحي مرة..
سبيتني..
آذيتني..
وعندي دليلي..
فذا وتيني..
عاصف..
نازف..
تزفه الأطواق..
ما كنت أعلم أنني..
تهون روحي هكذا..
ما كنت أعرف أنني..
أمضي سريعا..
أمضي صريعا..
أُغدرُ..
وغدرتي..
أشواق..
أسأت أنا؟!..
أي نعم..كيف لا..
ولم لم أسيء..
ما كنت موتا تهدني..
و..
أرأيت سهمك؟!..
هذا الذي يسكن عمق حشاشتي..
ما كان يعرف كيف يساق..
لله درك سيدي..
كم كنتُ قزما في الهوى..
كم كنتُ غرا جاهلا..
وقااااتلي عملاق..
كم كنت يوما أرعن(ا)..
غافلا..
تواق(ا)..
أولجت فلكي في العباب..
لم أعِ..
والريح صرصر..
والشراع ممزق..
وساعداي..
يسكنهما الإرهاق..
فكيف أشكو مر موتي؟!..
والعشق موتي..
والصمت صرخة خافقي..
والشكوى حرام في شرعة ال..
عشاق..
طوبى لك..
مزقتني..
بعثرتني..
أفنيتني..
ياااا بعد ولهي..
يا فلذة الأعماق..
مذ عرفتك وانهزامي قائدي..
وانكفاءة..
تلو أخرى..
والفشل والإخفاق..
ما أروعك..
كم جميل موتي فيك..
كم جميل نزفي لك..
وأنت حقا مخلص؟!..
خائن..
كاذب..أفّاق..
سكت القلم يا سادة..
لا تقرأوا هذياني.
بقلمي العابث..